Wednesday, July 23, 2008

शायरी

मैनोशी के आदाब से आगाह नहीं है तू जिस तरह कहे साकी-ए-मैखाना पिए जा
मैं नजर से पी रहा हूं, ये समां बदल न जाएन झुकाओ तुम निगाहें, कही रात ढल न जाएपहलू से दिल को लेके वो कहते हैं नाज से क्या आएं घर में आप ही जब मेहरबां न हों

सारी दुनिया सो जाती है, मैकश हम उठकर रोते हैंकिस तरह गुजरती हैं रातें, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो
हमें इक बार जी भर के पिला दे साकिया और फिर हमारे नाम सारे शहर की रुस्वाइयां लिखना -
चले जाते हैं पीकर मैकदे से सब खिरद वाले हमारी रात तो साकी के कदमों में बसर होगी
मैकदों के मोड़ पर रुकती हुई मुद्दतों की तिश्नगी थी मैं न था
तुम्हारी बेखुदी ने लाज रख ली वादाखाने की तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहां जाते
कटी रात सारी मेरी मैकदे में,खुदा याद आया सवेरे-सवेरे
ऐसे भी हैं दुनिया में जिन्हें गम नहीं होता एक हम हैं हमारा गम कभी कम नहीं होता
मय रहे मीना रहे गर्दिश में पैमाना रहे मेरे साकी तू रहे आबाद मैखाना रहे

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा -

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